कुछ ऐसी वक्त की नजाकत है ज़रा चुप रहिये
सेक्युलरिज्म की सियासत है ज़रा चुप रहिये।
अफजल पे सरे रात जो खुल जाया करती है
अर्नब पे बन्द वो अदालत है ज़रा चुप रहिये।
कहने को तो हम भी खरा जवाब दे देते
गर्दिश में अभी किस्मत है ज़रा चुप रहिये।
मासूमों के सीने पे बम फूटे तो कोई बात नही
उन्हें पटाखों से शिकायत है ज़रा चुप रहिये।
सड़कों पे बिखरे लहू मजहब के नाम पे मगर
पिचकारी के रंगों से नफरत है ज़रा चुप रहिये।
थाली में चिकन हाथ में प्याली शराब की
दबंगो की ये जेल में हालत है ज़रा चुप रहिये।
सदियों से सच घायल है इंसानियत लहूलुहान
बस फूलती फलती वहशत है ज़रा चुप रहिये।
कुछ ऐसी वक्त की नज़ाकत है ज़रा चुप रहिये
सेक्युलरिज्म की सियासत है ज़रा चुप रहिये।
~सतीश रोहतगी
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#कविता
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वाह,लाजवाब अभिव्यक्ति। मैंने भी अर्नब को लेकर कुछ लिखा है एक बारे मेरे ब्लॉग पर देखिएगा जरूर।
ReplyDeleteजी धन्यवाद
Deleteमैंने आपका लेख देखा
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 09
ReplyDeleteनवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
धन्यवाद जी
Deleteउम्दा ग़ज़ल।
ReplyDeleteधन्यवाद जी
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteधन्यवाद जी
Deleteजी धन्यवाद
ReplyDeleteसम सामयिक दृश्य को दर्शाती सुंदर पंक्तियाँ..!
ReplyDeleteधन्यवाद जिज्ञासा जी
Deleteबहुत सुन्दर
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