आपने बेरोजगारी की समस्या पर बहुत से लेख कविताएँ पढ़ें होंगे।इसके पीछे के कारण और समाधान पर चर्चा की होगी।किन्तु एक बेरोजगार व्यक्ति के भीतर कैसी उलझनें और विचार चलते हैं उनपर शायद कम ही ध्यान दिया हो।
मैंने ऐसा ही एक प्रयास किया है आशा है आपके हृदय तक पंहुच पाउँगा।एक बेरोजगार युवा को सम्बोधित करके यह रचना की गयी है।
कुछ तो मन की बोल प्यारे
भीतर-भीतर क्यों जलता है?
सबकी सुनता कुछ न कहता
चुटकी में उलझन मलता है।
नेक राह मंजिल पाने में
मुश्किल भी है दूरी भी
उनसे तो अच्छा ही है तू
जिनकी नजरों में 'सब चलता है' ।
मुहब्बत तो खुशबू सी होती
संग हवा के बह जाती है
पैसे के सावन की प्यासी को
तेरी मुट्ठी का पतझड़ खलता है।
छोटा -बड़ा जैसा भी होगा
मुकाम बनेगा अपने दम पर
जो कहते थे हम हैं ना
उन रिश्तों में धोखा पलता है।
ये जो ताने है छींटे हैं
और कुछ खुद से नाराजी है
बुरे वक्त के साये हैं ज्यों
बादल में सूरज ढलता है।
कुछ तो मन की बोल प्यारे
भीतर-भीतर क्यों जलता है
सबकी सुनता कुछ न कहता
चुटकी में उलझन मलता है।
~सतीश रोहतगी
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