Thursday, October 29, 2020

का सखि साजन?

  कहमुकरी चार पंक्ति का छंद होता है जिसमें दो सखियों के बीच प्रश्न और उत्तर का खेल होता है।पहली सखी 3 पंक्तियों में किसी वस्तु या विषय के संकेत देती है फिर दूसरी सखी उसका उत्तर देती हैकि हे सखि क्या ये साजन(क्योंकि संकेतों से ऐसा ही आभास होता है) है।तब पहली सखी उसके उत्तर को गलत बताकर मिलता जुलता उत्तर देती है जो पहले दिए गए संकेतों पर सटीक बैठता है।प्रत्येक पंक्ति में 16 मात्राएँ होती हैं।8 मात्रा पर यति उत्तम मानी जाती है।यद्द्यपि कभी कभी 7 मात्रा पर भी स्वीकार्य है।आशा है आपको ये कहमुकरियां पसन्द आएँगी।



1.

नयन समावे,मन हरसावे

विचार नगरी,राज सजावे

होत पराया,लागे अपना

का सखि साजन?ना सखि सपना।

2.

सब रंग बिरंगे,खेल खिलौने

सब जंतर मंतर,जादू टोने

ना बहलावे,कुछ उपचार

का सखि साजन?ना सखि प्यार।

3.

उसको चाहूँ,गले लगाना

गले लगाकर,चैना पाना

उसपे लुटता ,मेरा प्यार 

का सखी साजन?नही सखि हार।

4.

राम करें जो,मन के चाहे

देखत कर दूं,आगे बाँहें

उनसे मेरा,मोह का बन्धन

का सखि साजन?नही सखि कंगन।

5.

रात भये उर,से लग जाता

भौर भये तक,तन सहलाता

मन को भावे,सगरी रतिया

का सखि साजन?ना सखि तकिया।

                          ~सतीश रोहतगी

संकेत

उपचार=उपाय

चैना=आराम चैन

भये तक=होने तक

उर=गले,आलिंगन

सगरी रतिया=सारी रात



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Monday, October 26, 2020

श्रृंगार रस में कैसे लिखूँ

 



तन के घट भरा स्वांस रस

रत्ती रत्ती घटता जाये

संघर्षों की तीक्ष्ण आंच में

हुआ वाष्पन उड़ता जाये।

 रण-भूमि कागज की छाती

कलम नही,ये है तलवार

बन्धन-उन्मुक्तता का द्वंद्व

पर्वत से भारी हैं उदगार।

भय लगता है हाथ लगाते

जीवन के ओघड़ घावों को

मुखड़े पर मुस्कान सजाये

अन्तस् में क्रंदित भावों को।

सबको सबका जीवन आनंदित

क्षितिज सम  देता दिखलाई

जीवन बीता आस पांगते

हाथ आई कड़वी सच्चाई।

कानों में ढ़ोल जाड़ों में अग्नि

जैसे दूर - दूर से भाती है

छोटी सी मुस्कान के पीछे

अंतहीन रुदन की थाती है।

इस जग का सञ्चालन सूत्र

इसे समझना बहुत जटिल है

असत के मग में फूल बिछाए

सच का पथ सदा कंटिल  है।

उलटी प्रवाहित इस धारा में

सबके सुख की नौका डाँवाडौल

करुणा से रंजित आह्वानों में

न सूझे श्रृंगार के सुंदर बोल।

भय लगता है राजपथों पर

जाते हैं मानव या कि यन्त्र चले

जी चाहे दुनिया नई ढूंढ लूँ

या हमभी सुधबुध खो अभिमंत्र चलें।

या हमभी सुधबुध खो अभिमंत्र चलें।

                         ~सतीश रोहतगी

संकेत-

बन्धन=प्रतिबन्ध,

उन्मुक्तता=आजादी,फक्कड़पन

द्वंद्व=संघर्ष,खींचतान

उदगार=भावनाएं

अन्तस्=मन के भीतर

थाती=विरासत

करुणा से रंजित आह्वान=दया भाव लिए सहायता के लिए पुकारते

अभिमंत्र चलें=जैसे सम्मोहन में व्यक्ति को कुछ सही गलत नही पता होता उसी प्रकार चलें


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Tuesday, October 20, 2020

दिल हुआ बेचैन



 तेरे चेहरे की रंगत से सजी

सुबह की फजाएं देखकर,

दिल हुआ बेचैन मेरा

ये तेरी अदाएं देखकर।

इश्क के शीशे की खातिर

था हज़र सा दिल मेरा,

पत्थर अब पानी हुआ है

जलवों की शमाएं देखकर।

बेरहम दुनिया की गली में

अब भटकते थक गया हूँ,

आराम की चाहत हुई है

जुल्फों के साये देखकर।

एक तुम मेरी मुहब्बत 

की कदर करते नही,

एक हम बिछा देते हैं दिल

तुम्हें राह में आये देखकर।

आइना और मेरी कहानी

एक कशमकश में है फंसी,

हैं वो बेखबर,दिल में हमारे

 खुद को समाये देखकर।

तेरे चेहरे की रंगत से सजी

सुबह की फजाएं देखकर।

दिल हुआ बेचैन मेरा

ये तेरी अदाएं देखकर

~सतीश रोहतगी



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संकेत

रंगत=लाली या रौनक

हज़र=पत्थर

शमाएं=आग

कशमकश=उलझन


Friday, October 16, 2020

आ रहे हैं वो

 लब-ए-शाम पे मुस्कुराहट है

                    आ रहे हैं वो,

धड़कनों में थरथराहट है

                    आ रहे हैं वो।

वही खुशबु लिए आगोश में

सबा रक्स करती आ गयी

शजरे अँगनाई में सरसराहट है

                    आ रहे हैं वो।

वीरां ओ बन्द कमरों से 

पर्दा-ए-उफ़क़ हट रहा

इंतज़ार में बेकल चोखट है

                     आ रहे हैं वो।

उसकी आँखों से पिएंगे हम

आज न जाम रूबरू लाओ

न साकी न मय की जरूरत है

                       आ रहे हैं वो।

धड़कता दिल तेज सांसे और

आहें बेताब सी उम्मीद की

हर आहट में वो ही आहट है

                        आ रहे हैं वो।

लब-ए- शाम पे मुस्कुराहट है

                         आ रहे हैं वो।

                                 ~सतीश रोहतगी

संकेत

लब-ए-शाम=शाम के होठ

आगोश=आलिंगन

सबा=हवा

रक्स=नृत्य

शजरे अँगनाई=आँगन में लगा पेड़

पर्दा-इ-उफ़क़=अँधेरे की चादर

बेकल=व्याकुल

मय=शराब

     


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Sunday, October 4, 2020

महफ़िल और फाँसले

 


दौर-ए-महफ़िल इस बात ,पे ग़ौर किया कीजे

ज्यादा खुलकर भी न,हुजूर लोगों से मिला कीजे।

क्या पता कब कौन कैसे,दुश्मनी हासिल करे

दोस्ती में भी कुछ फाँसले,दरम्यान रखा कीजे।

कुछ पहलू आदमी के,दबकर ही वज़ा रहते हैं

हमराजों से भी न हर एक,राज बयाँ कीजे।

चले जाने पे बहारों के,दिल रह जाये न खाली

रंजो-गम का भी इक कोना,सीने में रखा कीजे।

कौन पूछेगा तुझे,गैर की तिश्नगी में मिटने के बाद

'रोहतगी' बरसो मगर,कुछ बचाकर भी रखा कीजे।

दौर-ए-महफ़िल इस बात,पे ग़ौर किया कीजे

ज्यादा खुलकर भी न ,हुजूर लोगों से मिला कीजे।

                                  ~सतीश रोहतगी



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संकेत

दौर ए महफ़िल=दावत या पार्टी में

वज़ा=उचित,ठीक

तिश्नगी=प्यास

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