दुनिया में जो भी अहम है
हाँ बस वही मसला नही
तभी तो देखकर ऊँचाई घर की
कोई नींव को समझा नही
वो तो विश्वास की ठोकर से बस
लड़खड़ा कर था गिरा
और ये दुनिया समझती है कि
वो वक्त पर संभला नही
~सतीश रोहतगी
मसला= चर्चा का विषय
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दुनिया में जो भी अहम है
हाँ बस वही मसला नही
तभी तो देखकर ऊँचाई घर की
कोई नींव को समझा नही
वो तो विश्वास की ठोकर से बस
लड़खड़ा कर था गिरा
और ये दुनिया समझती है कि
वो वक्त पर संभला नही
~सतीश रोहतगी
मसला= चर्चा का विषय
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शाम से सुबह तलक
तुझे सोचता हूँ एकटक
वहाँ तलक तू छाई है
मिले जहाँ जमीं- फ़लक
तेरे बाद दिल खिला नही
तुझसा कोई मिला नही
यादों का दरिया पास है
ख्वाबों का काफ़िला नही
जिस मोड़ पर बिछड़ी थी तू
मैं वहीं खड़ा हूँ आजतक।
शाम से सुबह तलक
तुझे सोचता हूँ एकटक।
ना सर्दियों की धुप में
ना इन गुलों के रूप में
पाता सुकून दिल मेरा
यादों के गहरे कूप में
मेरे दर्द के अफसानों से
प्याली भी अब गई छलक
शाम से सुबह तलक
तुझे सोचता हूँ एकटक
हर एक पल को नोंचकर
हरे करदूँ जख्म खरोंचकर
तब तो आओगी मुझको देखने
खुश होता हूँ ऐसा सोचकर
सौ दर्द की दवा मिले
मिले जो बस तेरी झलक
शाम से सुबह तलक
तुझे सोचता हूँ एकटक
ऐ दिल मेरे सँभल ज़रा
इस जाल से निकल ज़रा
बदल गयी वो जिस तरह
तू भी कुछ बदल ज़रा
इस किस्से पे पर्दा डाल अब
आँखों पे झुक गयी पलक
शाम से सुबह तलक
तुझे सोचता हूँ एकटक
~सतीश रोहतगी
रह जाती है अधूरी वो जरुरी बात
सोचकर कि कल कहूँगा आज नही
तैयारियां नाकाम हो जाती तेरे सामने
जैसे कि जज्बात तो हैं अल्फ़ाज नही
कोरोना में जीवन गंवा देने वाले लोगों के परिवारों ,अपनों का दर्द इस कविता में उतारने का प्रयास किया है।आशा है आप सबके दिलों तक पहुँच पाउँगा।
https://youtu.be/s1LkcE7WOZo
देखकर एक बार जिसको दिनभर ख़ुशी सी रहती है
सोचने भर से ही लबों पर एक हंसी सी रहती है
मिलने को जिससे हर सुबह में रात भर मचलता हूँ
अगली गली में तो वो लड़की सांवली सी रहती है
हर बात में उसकी कशिश हर बात उसकी लाजवाब
मगर सबसे बढ़कर पैरहन में सादगी सी रहती है
मेरी गली से आते जाते हर बार मुड़कर देखती है
उसकी छोटी सी शरारत से हरपल बेकली सी रहती है
दो चार दिन भी वो अगर मुझको नजर न आये तो
अच्छे बुरे ख्यालों से दिल में खलबली सी रहती है
कहना है उससे बहुत कुछ हिम्मत जुटा पाता नही
वो सामने आती है तो धड़कन थमी सी रहती है
'रोहतगी' लगता है तुझको रोग वो ही हो गया
शेख ओ बिरहमन को भी जिसमें मयकशी सी रहती है।
~सतीश रोहतगी
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पैरहन=पहनावा
शेख ओ बिरहमन=मौलवी और पण्डित
ओ तमन्ना के परिंदे सुन तुझे अब ठहर जाना चाहिए
वक़्त का अच्छा बुरा नगमा ख़ुशी से गुनगुनाना चाहिए।
ऐब-ओ-सवाब के पलड़े में न हर वक़्त खुद को तोलिये
कभी कभी तो दोस्तों के संग भी पीना पिलाना चाहिए।
वो शाब्दा आँखें ही हैं बिना मय भी सकूँ देती हैं जो
हुस्न वालों से अदब से हमेशा पेश आना चाहिए ।
देखते हुए तस्वीर तेरी अक्सर गुजरती रातें मेरी
हैं नींद की ये शर्त कि तेरा ख़्वाब आना चाहिए।
(youtubeपर "satishrohatgipoetry"पर वीडियो देखें)
इतना भी भला क्या सोचना बह जाये न पानी समय का
कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें फ़ौरन बताना चाहिए।
'रोहतगी' लाख हों मसले मगर दुनियादारी भी कोई चीज है
अचानक कहीं मिल जाएँ ग़र तो मुस्कुराना चाहिए।
~सतीश रोहतगी
ताज़गी है खुश्बू है जिंदगी सी लाई है
लगता है ये हवा तेरे शहर से आई है।
मेरे बालों से यूँ गुजरी गोया उँगलियाँ हैं तेरी
मेरे बालों से यूँ गुजरी गोया उँगलियाँ हैं तेरी
और एहसास में तेरी सांसों की पारसाई है।
मैं कशमकश की नोंक पे हस्ती को लिए बैठा हूँ
मैं कशमकश की नोंक पे हस्ती को लिए बैठा हूँ
ना कहूँ तो ख़ुदकुशी कह दूं तो जगहंसाई है।
उसी के ख्वाब सजाना जो मेरा न रहा कभी
उसी के ख्वाब सजाना जो मेरा न रहा कभी
मुहब्बत मेरी अब तो नींदों की बेहयाई है।
वो था,थी ग़म में ख़ुशी अब ख़ुशी में ग़म है
वो था,थी ग़म में ख़ुशी अब ख़ुशी में ग़म है
तब सांसे तमन्ना थी अब रस्म अदाई है।
ताज़गी है खुश्बू है ज़िन्दगी सी लाई है
लगता है ये हवा तेरे शहर से आई है
ऐ दिल भटकना छोड़ ठिकाना ये भी अच्छा है
मतलब की महफ़िल से वीराना ये भी अच्छा है
है तन्हाई का डर तो हर तरफ आईने रख लो
खुद को बहलाने का बहाना ये भी अच्छा है
~सतीश रोहतगी
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तेरी रह-गुज़र में बिखर जाने की हसरत है
इन आँखों के समन्दर में उतर जाने की हसरत है
नहीं कहता तू मुझको अपनी हसरत बना के जी
मुझे तो तेरी दीवानगी में मर जाने की हसरत है।
~सतीश रोहतगी
यह कविता ऐसी सत्य घटना पर आधारित है जिसमे एक बूढा व्यक्ति काम की तलाश में भटक रहा है।लेकिन उसे काम नही मिलता तो उसकी क्या अवस्था है।आशा है ये मार्मिक रचना आप सब को पसन्द आएगी
हाल-ए-दिल अब बतलाने से डरता हूँ
नाकाम रहे उस अफ़साने से डरता हूँ।
गाँवों के ये टूटे झोंपड़ और रठाने ही अच्छे
तेरे व्यस्त शहर के वीराने से डरता हूँ।
तू नही मिला तो गैरों से अय्याशी क्या
खुद की नजरों में गिर जाने से डरता हूँ।
तेरे जाने के बाद से वहशी हैं सन्नाटे
बचपन की तरहा घर में जाने से डरता हूँ।
इक इक कर खत सारे जला दिए हैं
गुजरी बातों के याद आने से डरता हूँ।
चाँद दिखेगा तो तेरा चेहरा याद आएगा
बस इसीलिए छत पर जाने से डरता हूँ।
खाब से पूछा गरीबो से नाराजी क्या
बोला आंसू बनकर बह जाने से डरता हूँ।
हाल-ए-दिल अब बतलाने से डरता हूँ।
नाकाम रहे उस अफ़साने से डरता हूँ।
~सतीश रोहतगी
मैं समंदर तो नहीं कि दिल में उठे हर तूफान को सह लूँ तुम जब हंसकर गैरों से मिलती हो तो मैं परेशान होता हूँ ...