मिलते हजार ठौर
बाम ए सुकूँ नही मिलता ।
खुदगर्जी का शहर है तेरा
चाकदिल का रफू नही मिलता ।
मतलबों के शानों पर
अब रिश्तों के जनाजे हैं,
यहां सड़कों पे मिलता है
बशर में लहू नही मिलता ।
नफे नुकसान के खंजर
रब्त की नींव में उतरे
सिसकते टूटते नातों में अब
पहले सा जुनूँ नही मिलता ।
पडौसी की तरह एक कोने में
माँ राह तके दो बातें हो
है आलम ये बेटा भी अपना
बेटे सा क्यूँ नही मिलता ।
तय होती अहमियत देखिये
जरूरत से मुलाकातों की,
मिलने की ही खातिर
बस कोई क्यूँ नही मिलता ?
पडौसी से भिजवाये सन्देश नही
न ही खत के आने का दौर,
ऑनलाइन इस दुनिया में
कोई अब रूबरू नही मिलता।
मिलते हजार ठौर हमें
बाम ए सुकूँ नही मिलता।
~सतीश रोहतगी
संकेत
ठौर=ठिकाने
बाम ए सुकूँ=आराम का स्थान
चाकदिल=टूटे दिल
रफू=कटे कपड़े आदि को सिलना
शानों पर=कन्धों पर
बशर=इंसान
रूबरू=आमने सामने
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Awesome
ReplyDeletethanks
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