Monday, August 31, 2020

ग़ज़ल-खोखली मुलाकातें

 

मिलते हजार ठौर

बाम ए सुकूँ नही मिलता ।

खुदगर्जी का शहर है तेरा

चाकदिल का रफू नही मिलता ।

मतलबों के शानों पर

अब रिश्तों के जनाजे हैं,

यहां सड़कों पे मिलता है

बशर में लहू नही मिलता ।

नफे नुकसान के खंजर

रब्त की नींव में उतरे

सिसकते टूटते नातों में अब

पहले सा जुनूँ नही मिलता ।

पडौसी की तरह एक कोने में

माँ राह तके दो बातें हो

है आलम ये बेटा भी अपना



बेटे सा क्यूँ नही मिलता ।

तय होती अहमियत देखिये

जरूरत से मुलाकातों की,

मिलने की ही खातिर

बस कोई क्यूँ नही मिलता ?

पडौसी से भिजवाये सन्देश नही

न ही खत के आने का दौर,

ऑनलाइन इस दुनिया में 

कोई अब रूबरू नही मिलता।

मिलते हजार ठौर हमें

बाम ए सुकूँ नही मिलता।

                     ~सतीश रोहतगी

संकेत

ठौर=ठिकाने

बाम ए सुकूँ=आराम का स्थान

चाकदिल=टूटे दिल

रफू=कटे कपड़े आदि को सिलना


शानों पर=कन्धों पर

बशर=इंसान

रूबरू=आमने सामने


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