Sunday, January 10, 2021

हाल-ए-दिल


 


हाल-ए-दिल अब बतलाने से डरता हूँ

नाकाम रहे उस अफ़साने से डरता हूँ।

गाँवों के ये टूटे झोंपड़ और रठाने ही अच्छे

तेरे व्यस्त शहर के वीराने से डरता हूँ।

तू नही मिला तो गैरों से अय्याशी क्या

खुद की नजरों में गिर जाने से डरता हूँ।

तेरे जाने के बाद से वहशी हैं सन्नाटे

बचपन की तरहा घर में जाने से डरता हूँ।

इक इक कर खत सारे जला दिए हैं

गुजरी बातों के याद आने से डरता हूँ।

चाँद दिखेगा तो तेरा चेहरा याद आएगा

बस इसीलिए छत पर जाने से डरता हूँ।

खाब से पूछा गरीबो से नाराजी क्या

बोला आंसू बनकर बह जाने से डरता हूँ।

हाल-ए-दिल अब बतलाने से डरता हूँ।

नाकाम रहे उस अफ़साने से डरता हूँ।

                              ~सतीश रोहतगी


23 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 10 जनवरी 2021 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद दिव्या जी

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  2. Wah wah ..Dil chatpata kr Diya ...daru V... ki had AA jati h inhe padh kr

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  3. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 11 जनवरी 2021 को 'सर्दियों की धूप का आलम; (चर्चा अंक-3943) पर भी होगी।--
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद महोदय

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  4. बहुत सुन्दर

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  5. बहुत सुन्दर।
    विश्व हिन्दी दिवस की बधाई हो।

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  6. वाह! क्या खूब ग़ज़ल है। शानदार।

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  7. बेहतरीन लफ्ज़ ।

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  8. Replies
    1. शुक्रिया शांतनु जी

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