हाल-ए-दिल अब बतलाने से डरता हूँ
नाकाम रहे उस अफ़साने से डरता हूँ।
गाँवों के ये टूटे झोंपड़ और रठाने ही अच्छे
तेरे व्यस्त शहर के वीराने से डरता हूँ।
तू नही मिला तो गैरों से अय्याशी क्या
खुद की नजरों में गिर जाने से डरता हूँ।
तेरे जाने के बाद से वहशी हैं सन्नाटे
बचपन की तरहा घर में जाने से डरता हूँ।
इक इक कर खत सारे जला दिए हैं
गुजरी बातों के याद आने से डरता हूँ।
चाँद दिखेगा तो तेरा चेहरा याद आएगा
बस इसीलिए छत पर जाने से डरता हूँ।
खाब से पूछा गरीबो से नाराजी क्या
बोला आंसू बनकर बह जाने से डरता हूँ।
हाल-ए-दिल अब बतलाने से डरता हूँ।
नाकाम रहे उस अफ़साने से डरता हूँ।
~सतीश रोहतगी
बहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद महोदय
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 10 जनवरी 2021 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद दिव्या जी
Deleteवाह
ReplyDeleteThanks sir
DeleteWah wah ..Dil chatpata kr Diya ...daru V... ki had AA jati h inhe padh kr
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ReplyDeleteनमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 11 जनवरी 2021 को 'सर्दियों की धूप का आलम; (चर्चा अंक-3943) पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बहुत बहुत धन्यवाद महोदय
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeletethanks sir
Deleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteविश्व हिन्दी दिवस की बधाई हो।
बहुत आभार श्रीमान
Deleteवाह! क्या खूब ग़ज़ल है। शानदार।
ReplyDeleteThank you bro
Deleteबेहतरीन लफ्ज़ ।
ReplyDeleteशुक्रिया अमृता जी
Deleteबहुत सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteशुक्रिया शांतनु जी
DeleteAwesome sir ji
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeletethank you alok sinha ji
DeleteBahut khub
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