Tuesday, September 29, 2020

बेरोजगार

 आपने बेरोजगारी की समस्या पर बहुत से लेख कविताएँ पढ़ें होंगे।इसके पीछे के कारण और समाधान पर चर्चा की होगी।किन्तु एक बेरोजगार व्यक्ति के भीतर कैसी उलझनें और विचार चलते हैं उनपर शायद कम ही ध्यान दिया हो।

मैंने ऐसा ही एक प्रयास किया है आशा है आपके हृदय तक पंहुच पाउँगा।एक बेरोजगार युवा को सम्बोधित करके यह रचना की गयी है।






कुछ तो मन की बोल प्यारे

भीतर-भीतर क्यों जलता है?

सबकी सुनता कुछ न कहता

चुटकी में उलझन मलता है।

नेक राह मंजिल पाने में

मुश्किल भी है दूरी भी

उनसे तो अच्छा ही है तू

जिनकी नजरों में 'सब चलता है' ।

मुहब्बत तो खुशबू सी होती

संग हवा के बह जाती है

पैसे के सावन की प्यासी को

तेरी मुट्ठी का पतझड़ खलता है।

छोटा -बड़ा जैसा भी होगा

मुकाम बनेगा अपने दम पर

जो कहते थे हम हैं ना

उन रिश्तों में धोखा पलता है।

ये जो ताने है छींटे हैं

और कुछ खुद से नाराजी है

बुरे वक्त के साये हैं ज्यों

बादल में सूरज ढलता है।

कुछ तो मन की बोल प्यारे

भीतर-भीतर क्यों जलता है

सबकी सुनता कुछ न कहता

चुटकी में उलझन मलता है।

            ~सतीश रोहतगी


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#कविता

#SatishRohatgi

Tuesday, September 22, 2020

स्ट्रीट डॉग , street dogs

 आपने देखा होगा कि कोई आवारा कुत्ते/स्ट्रीट डॉग जैसे ही घर के सामने कुछ भोजन की आशा लेकर आता है प्रायः मार भगाया जाता है।कोई कुत्ता जो भोजन के अभाव में दुर्बल होकर एक कोने से में दीवार,झाडी,आदि कि आड़ में पड़ा हुआ न जाने क्यों छिपता सा रहता है।कभी-कभार ही शायद पेटभर खा पाता होगा।उसकी उसी कष्टपूर्ण अवस्था पर कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं।आशा है आपके हृदय तक पंहुचेंगी।पंक्तियाँ इस प्रकार हैं---



अरे श्वान तेरी मौन पीर की

कौन यहाँ सुध लेय

देख कोई लाठी चटकावे

कोई सर पत्थर जड देय,

घर-घर,दर-दर फिरे भटकता

व्याकुल   करती   भूख

किन्तु हाय धनिक मनुज से

बने न कर्ण बराबर टूक,

अतृप्त क्षुदा अतिरेक घृणा

पाकर भी मानुष से मोह

निरपराध निर्दोष है किन्तु

 छिपने ढूंढ्त खोह,

पेट पीठ दोनों एक भये

हुई काया ज्यों कारावास

कौन कर्म का दण्ड पुगाये

नित गाली और उपहास,

कूड़ा-करकट,पत्तों का ढेर

नुक्कड़,नाली और खोह

भूखा-भूखा,पीड़ित-पीड़ित

बस टुकड़े  रहता  टोह,

(कांटेदेखने का एक अलग नजरिया भी आप पढ़ें)

मुख धरती पर धरे -धरे 

जोहता रहता है बाट

सूखे टीकड बासी भाजी

से ही हो जाते ठाठ,

अरे श्वान सन्तोष तेरा

ज्यों सागर में नीर

घृणा गाली चोट झेलता

बांधे  रहता  धीर,

किस भांति तू रैन गुजारे

चाट -चाट पत्तर-दोने

मिला,मिला,कुछ नही मिला

जा बैठा नुक्कड़ कोने,

ढ़ले दिन द्वारे-द्वारे जाकर

मानव की मानवता नापे

या मनुज की कर्म बही में

उसके कर्मों का लेखा छापे,

खोखली मुलाकातेंइस दौर को दिखाती हुई ग़ज़ल)

अरे श्वान तेरी भीगी आँखे

कहती पीड़ा का पाठ

भूख जलाती तुझको जैसे

दिन-रात सुलगती काठ,

पूछ हरि से अस्तित्व है

क्यों तेरा खंड -खंड

दुर्लभ तृप्ति सतत हीनता

जीवन है या दण्ड,

अरे श्वान तेरी मौन पीर की

कौन यहाँ सुध लेय

देख कोई लाठी चटकावे

कोई सर पत्थर जड देय

                  ~सतीश रोहतगी

संकेत

श्वान (shwaan)=कुत्ता

कर्ण बराबर टूक=कान के बराबर टुकड़ा

अतृप्त क्षुदा=बिना मिटी भूख

अतिरेक घृणा=बहुत अधिक नफरत

कर्म बही=कर्मों का खाता

काठ=लकड़ी

तृप्ति=सन्तुष्टि


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Sunday, September 13, 2020

रेत पर लिखा नाम

 रेत पर लिखा जो नाम है,जीने का सहारा है

हकीकत में गैर का है वो,ख़ाबों में हमारा है


उसके सिवा पहलु में कोई चेहरा नही था

याद आता है इस शहर में कोई मेरा नही था

पर आज किसी साये ने,पीछे से पुकारा है

कोई हमसा ही दीवाना है,या वक्त का मारा है


कई बार हमारे पास से गुजरी है जिंदगी

एक बार मुस्करा के हरदम गयी चली

मोती कांच के टुकड़े थे,जिन्हें पलकों से सँवारा है

जो मेरी आँख की सुर्खी है,ये दर्द तुम्हारा है



तन्हाई में देखता हूँ अपनी लकीरों को

और रह-ए-जिंदगी में चलते राहगीरों को

एक जाल है रस्तों का उलझन में गुजारा है

कोई हार के जीता है कोई जीत के हारा है


दुनिया के रुख को दोस्तों समझ सके न हम

किस बात पे हैरां हो कब करने लगे सितम

लोगों की सवाली आँखों को,हँस हँस के गँवारा है

कुछ यूं कर हमने जिंदगी का,कुछ कर्ज उतारा है


 रेत पे लिखा जो नाम है,जीने का सहारा है

हकीकत में गैर का है वो,ख़ाबों में हमारा है

                                              ~सतीश रोहतगी



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#स्वरांजलि

ये खूबसूरत शेर भी पढ़िए





Thursday, September 10, 2020

कांटें


लोग काँटों से डरा करते हैं

जाने क्यूँ बेबात गिला करते हैं

पर मुझे इनसे कोई बैर नही

ख़ुशी क़ुबूल गम भी गैर नही

इतने भी बदसूरत नही होते

इन्हें समझने को चाहिए

उपयोगिता की परख,

और एक गहरा नजरिया,

जो बहुत मुश्किल है


है काँटों से अहमियत फूलों की

वो कठोर हैं मानिंद उसूलों की

टूट सकते हैं ,झुकते नही हैं

होकर भी छुपे छुपे से रहते है




हर लम्हा मुझसे कहते हैं

भुला दे तंज जमाने के सभी

कब तलक दिल पे बोझ रखेगा

हद से बाहर अच्छी नही मंजिल की फ़िक्र

पंहुचेगा गर इक कदम भी रोज रखेगा

हमने झेले हैं नजरों से झलकते ताने

और सूरत पे तग़ाफ़ुल से उचकते शाने

होने को भी अनहोना सा बना देते हैं

फूलों की महक में डूबे लोग

हम काँटों को बेवजह सा बना देते हैं



भूल जाते हैं फूलों की बदौलत

लोग चोरी के इरादे से मिला करते हैं

कांटे ही बचाते हैं आशियाने को

और हमसे ही अहबाब गिला करते हैं



संकेत

मानिंद=भांति

तग़ाफ़ुल=उपेक्षा

शाने=कन्धे

अहबाब=दोस्त,मित्र,शुभचिंतक

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#हिंदी_कविता

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विशेष-सभी चित्र साभार गूगल से 




Wednesday, September 2, 2020

कुछ शेर-उलझन


 1.

उनसे इश्क का सौदा नफा था या नुकसान था

हुआ यूं कि हम तन्हाई से आहें बदल के रह गए

उन्हें आना न था न आएंगे पर दिल का क्या करें

हम दियों से रस्ता सजाकर खुद को छल के रह गए

2.

उम्मीद के दिये हैं रोज जलाने हैं बुझाने हैं

आज आएगा ये सोचकर हमें रस्ते सजाने हैं

वो जब लौटने का वादा कर अपनी मंजिल पे बढ़ गया

वो तब भी होशियार था हम अब भी दीवाने हैं

3.

हाथ की लकीरों में लिखा क्या है

पाया ही क्या था जो देखूँ बचा क्या है

मेरे और दिल के बीच इस बात की जंग है

ये ही जिंदगी है तो फिर क़ज़ा क्या है

4.

करिया ए दिल पे इक कयामत आते आते रुक गयी है

उठते उठते उनकी नजर जो आज फिर से झुक गयी है

उलझन बड़ी हमारे लिए उनका कुछ कहे बिना जाना

फिर मुड़कर देखने की घड़ी हम पे बहुत नाजुक गयी है


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स्पष्टीकरण-तस्वीर गूगल से साभार



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