शाम से सुबह तलक
तुझे सोचता हूँ एकटक
वहाँ तलक तू छाई है
मिले जहाँ जमीं- फ़लक
तेरे बाद दिल खिला नही
तुझसा कोई मिला नही
यादों का दरिया पास है
ख्वाबों का काफ़िला नही
जिस मोड़ पर बिछड़ी थी तू
मैं वहीं खड़ा हूँ आजतक।
शाम से सुबह तलक
तुझे सोचता हूँ एकटक।
ना सर्दियों की धुप में
ना इन गुलों के रूप में
पाता सुकून दिल मेरा
यादों के गहरे कूप में
मेरे दर्द के अफसानों से
प्याली भी अब गई छलक
शाम से सुबह तलक
तुझे सोचता हूँ एकटक
हर एक पल को नोंचकर
हरे करदूँ जख्म खरोंचकर
तब तो आओगी मुझको देखने
खुश होता हूँ ऐसा सोचकर
सौ दर्द की दवा मिले
मिले जो बस तेरी झलक
शाम से सुबह तलक
तुझे सोचता हूँ एकटक
ऐ दिल मेरे सँभल ज़रा
इस जाल से निकल ज़रा
बदल गयी वो जिस तरह
तू भी कुछ बदल ज़रा
इस किस्से पे पर्दा डाल अब
आँखों पे झुक गयी पलक
शाम से सुबह तलक
तुझे सोचता हूँ एकटक
~सतीश रोहतगी
बहुत बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteधन्यवाद जी
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०३-0७-२०२१) को
'सघन तिमिर में' (चर्चा अंक- ४११४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जी धन्यवाद
DeleteBadhiya
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteहृदयस्पर्शी भाव,बहुत खूब ।
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया
Deleteमर्मस्पर्शी सृजन।
ReplyDeleteसुंदर।
आभार
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