Thursday, December 3, 2020

भय लगता है


(इस कविता में

व्यक्ति की उस मानसिक दशा का वर्णन है जब वह समाज के विभिन्न पहलुओं में उपेक्षा का शिकार होकर सच्चाई और अच्छाई के मार्ग को छोड़ने और न छोड़ने की उलझन से गुजरता है।आप जितना गहराई से समझने का प्रयास करेंगे उतना ही इस कविता की सार्थकता और भाव को अनुभव करेंगे ऐसा मेरा विश्वास है।)

 



जब अचेतन पड़ी 

आत्मसम्मान की मही

सामजिक भेद की फाली से कुरेदी जाये

उपेक्षाओं के थपेड़ो

से भुरभुराकर नियति

हृदय में प्रतिशोध के बीज बोती जाए 

जलते अंगारों से वे बीज

प्रतिकार से सिंचित अहंकार से सेवित

नरसुलभ मूल्यों के वक्ष चीर

करते दुर्भावनाओं के अंकुर सृजित

तो भय लगता है

हाँ स्वयं से भय लगता है।

निरपराध होकर भी 

जीवन भर का दण्ड

पग पग चलना भी कठिन हो जाये

दयाभाव से भरे लोगों के नयन

व्यंग्य करें और स्वयं से सहे न जाएँ

तब लोकेशनाओं का विशाल वृक्ष

विषैली दग्ध छाँव बरसाता

प्रेम के अंकुर रिश्तों की दूब को दहता

दम्भ के ज्वालामुखी का लावा

जीवन के पल पल पर छा जाता

तो भय लगता है

हाँ स्वयं से भय लगता है।

प्रेम से परिपूर्ण मन की गागर

जब उनके मूक व्यंग्य से फूटे

शब्द-शब्द सजा लिखी जाने वाली कथा

सिसक-सिसक का विरह में कलम से छूटे

जब अट्टालिकाओं पर खड़ा हमारा प्रेम

ऊँची बोलियों की हाट में सजा दिखता हो

किसी का कंकड़ भी मोती कहा जाये

और हमारा कनकमन मिट्टी सा बिकता हो

तो भय लगता है 

हाँ स्वयं से भय लगता है।

प्रत्युतर नही देने वाले हम मूर्ख नही 

हम बस नातों की सजीवता चाहते हैं

हमारे सहयोग को अपनी चतुरता न समझो

हम जैसे लोग बस यूं ही काम आ जाते हैं

भय लगता है कि कहीं ऐसा न हो 

हमारी सहज सज्जनता की उपेक्षा करके

येन केन प्रकारेण ऊपर चढ़ते लोग

तोड़ न दें उन बेड़ियों को ज्यादा कसा करके

बांधे रखती जो मनुज के भीतर के दानव को

धन के चुम्बक से खिंच आते प्रेम,मान व रिश्ते

बहकाने लगते हैं सदगुणी मानव को

कहीं ऐसा न हो जाए कि जग की

भौतिकता व् स्वार्थ की रौ में बहकर

और समाज के सौतेले व्यवहार से खिन्न होकर

खो न दूं अपनी संवेदनाएं और भावुकता

बस स्वयं से इसी बात का भय लगता है

                         ~सतीश रोहतगी

संकेत

मही=भूमि

नियति=भाग्य,विधाता

प्रतिकार=विरोध,एक प्रकार से जवाब देने की बात

नर सुलभ मूल्य=मानव के सद्गुण जैसे प्रेम,दया,विनम्रता आदि

लोकेशना=संसार में प्रसिद्द होने या औरों से ख़ास दिखने की इच्छा

दम्भ=ईगो,

मूक व्यंग्य=ऐसा ताना जो केवल आँखों या मुस्कान से हो और बिना बोले किया जाए

कनकमन=सोने जैसा मन

येन केन प्रकारेण=अच्छा बुरा कोई भी रास्ता अपनाकर



Tuesday, November 17, 2020

प्यासी चिड़िया-बालकविता

 



प्यास से व्याकुल चिड़िया रानी

दूर दूर तक ढूंढें पानी

जंगल जंगल और डगर डगर

जल न आये कहीं नजर

उड़कर पंहुची नगर एक

हरषाई जल का पात्र देख

एक मकान की छत पर जल

जीवनरक्षक अमृत सा निर्मल

एक कबूतर करता जल पान

पानी पी चिड़िया के बचे प्राण

एक प्रश्न उसके मन में आया

ये जल इस छत पर कैसे आया?

गर्मी में सूखे सूखे ताल तलैया

पीनेको  बूँद बूँद टोटा है भैया

कबूतर ने तब जल की बात बताई

तभी नन्ही सी गुड़िया छत पर आई

देखो चिड़िया ये है अपनी मीना रानी

रोज हमारे लिए यही,कुंडे में भर जाती पानी

बच्चों तुम भी कर लो यह संकल्प अटल

चिड़ियों के लिए छत पर रखना है जल

                            ~सतीश रोहतगी

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Sunday, November 8, 2020

चुप रहिये




कुछ ऐसी वक्त की नजाकत है ज़रा चुप रहिये

सेक्युलरिज्म की सियासत है ज़रा चुप रहिये।

अफजल पे सरे रात जो खुल जाया करती है

अर्नब पे बन्द वो अदालत है ज़रा चुप रहिये।

कहने को तो हम भी खरा जवाब दे देते

गर्दिश में अभी किस्मत है ज़रा चुप रहिये।

मासूमों के सीने पे बम फूटे तो कोई बात नही

उन्हें पटाखों से शिकायत है ज़रा चुप रहिये।

सड़कों पे बिखरे लहू मजहब के नाम पे मगर

पिचकारी के रंगों से नफरत है ज़रा चुप रहिये।

थाली में चिकन हाथ में प्याली शराब की

दबंगो की ये जेल में हालत है ज़रा चुप रहिये।

सदियों से सच घायल है इंसानियत लहूलुहान

बस फूलती फलती वहशत है ज़रा चुप रहिये।

कुछ ऐसी वक्त की नज़ाकत है ज़रा चुप रहिये

सेक्युलरिज्म की सियासत है ज़रा चुप रहिये।

                                   ~सतीश रोहतगी


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Thursday, October 29, 2020

का सखि साजन?

  कहमुकरी चार पंक्ति का छंद होता है जिसमें दो सखियों के बीच प्रश्न और उत्तर का खेल होता है।पहली सखी 3 पंक्तियों में किसी वस्तु या विषय के संकेत देती है फिर दूसरी सखी उसका उत्तर देती हैकि हे सखि क्या ये साजन(क्योंकि संकेतों से ऐसा ही आभास होता है) है।तब पहली सखी उसके उत्तर को गलत बताकर मिलता जुलता उत्तर देती है जो पहले दिए गए संकेतों पर सटीक बैठता है।प्रत्येक पंक्ति में 16 मात्राएँ होती हैं।8 मात्रा पर यति उत्तम मानी जाती है।यद्द्यपि कभी कभी 7 मात्रा पर भी स्वीकार्य है।आशा है आपको ये कहमुकरियां पसन्द आएँगी।



1.

नयन समावे,मन हरसावे

विचार नगरी,राज सजावे

होत पराया,लागे अपना

का सखि साजन?ना सखि सपना।

2.

सब रंग बिरंगे,खेल खिलौने

सब जंतर मंतर,जादू टोने

ना बहलावे,कुछ उपचार

का सखि साजन?ना सखि प्यार।

3.

उसको चाहूँ,गले लगाना

गले लगाकर,चैना पाना

उसपे लुटता ,मेरा प्यार 

का सखी साजन?नही सखि हार।

4.

राम करें जो,मन के चाहे

देखत कर दूं,आगे बाँहें

उनसे मेरा,मोह का बन्धन

का सखि साजन?नही सखि कंगन।

5.

रात भये उर,से लग जाता

भौर भये तक,तन सहलाता

मन को भावे,सगरी रतिया

का सखि साजन?ना सखि तकिया।

                          ~सतीश रोहतगी

संकेत

उपचार=उपाय

चैना=आराम चैन

भये तक=होने तक

उर=गले,आलिंगन

सगरी रतिया=सारी रात



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Monday, October 26, 2020

श्रृंगार रस में कैसे लिखूँ

 



तन के घट भरा स्वांस रस

रत्ती रत्ती घटता जाये

संघर्षों की तीक्ष्ण आंच में

हुआ वाष्पन उड़ता जाये।

 रण-भूमि कागज की छाती

कलम नही,ये है तलवार

बन्धन-उन्मुक्तता का द्वंद्व

पर्वत से भारी हैं उदगार।

भय लगता है हाथ लगाते

जीवन के ओघड़ घावों को

मुखड़े पर मुस्कान सजाये

अन्तस् में क्रंदित भावों को।

सबको सबका जीवन आनंदित

क्षितिज सम  देता दिखलाई

जीवन बीता आस पांगते

हाथ आई कड़वी सच्चाई।

कानों में ढ़ोल जाड़ों में अग्नि

जैसे दूर - दूर से भाती है

छोटी सी मुस्कान के पीछे

अंतहीन रुदन की थाती है।

इस जग का सञ्चालन सूत्र

इसे समझना बहुत जटिल है

असत के मग में फूल बिछाए

सच का पथ सदा कंटिल  है।

उलटी प्रवाहित इस धारा में

सबके सुख की नौका डाँवाडौल

करुणा से रंजित आह्वानों में

न सूझे श्रृंगार के सुंदर बोल।

भय लगता है राजपथों पर

जाते हैं मानव या कि यन्त्र चले

जी चाहे दुनिया नई ढूंढ लूँ

या हमभी सुधबुध खो अभिमंत्र चलें।

या हमभी सुधबुध खो अभिमंत्र चलें।

                         ~सतीश रोहतगी

संकेत-

बन्धन=प्रतिबन्ध,

उन्मुक्तता=आजादी,फक्कड़पन

द्वंद्व=संघर्ष,खींचतान

उदगार=भावनाएं

अन्तस्=मन के भीतर

थाती=विरासत

करुणा से रंजित आह्वान=दया भाव लिए सहायता के लिए पुकारते

अभिमंत्र चलें=जैसे सम्मोहन में व्यक्ति को कुछ सही गलत नही पता होता उसी प्रकार चलें


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Tuesday, October 20, 2020

दिल हुआ बेचैन



 तेरे चेहरे की रंगत से सजी

सुबह की फजाएं देखकर,

दिल हुआ बेचैन मेरा

ये तेरी अदाएं देखकर।

इश्क के शीशे की खातिर

था हज़र सा दिल मेरा,

पत्थर अब पानी हुआ है

जलवों की शमाएं देखकर।

बेरहम दुनिया की गली में

अब भटकते थक गया हूँ,

आराम की चाहत हुई है

जुल्फों के साये देखकर।

एक तुम मेरी मुहब्बत 

की कदर करते नही,

एक हम बिछा देते हैं दिल

तुम्हें राह में आये देखकर।

आइना और मेरी कहानी

एक कशमकश में है फंसी,

हैं वो बेखबर,दिल में हमारे

 खुद को समाये देखकर।

तेरे चेहरे की रंगत से सजी

सुबह की फजाएं देखकर।

दिल हुआ बेचैन मेरा

ये तेरी अदाएं देखकर

~सतीश रोहतगी



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संकेत

रंगत=लाली या रौनक

हज़र=पत्थर

शमाएं=आग

कशमकश=उलझन


Friday, October 16, 2020

आ रहे हैं वो

 लब-ए-शाम पे मुस्कुराहट है

                    आ रहे हैं वो,

धड़कनों में थरथराहट है

                    आ रहे हैं वो।

वही खुशबु लिए आगोश में

सबा रक्स करती आ गयी

शजरे अँगनाई में सरसराहट है

                    आ रहे हैं वो।

वीरां ओ बन्द कमरों से 

पर्दा-ए-उफ़क़ हट रहा

इंतज़ार में बेकल चोखट है

                     आ रहे हैं वो।

उसकी आँखों से पिएंगे हम

आज न जाम रूबरू लाओ

न साकी न मय की जरूरत है

                       आ रहे हैं वो।

धड़कता दिल तेज सांसे और

आहें बेताब सी उम्मीद की

हर आहट में वो ही आहट है

                        आ रहे हैं वो।

लब-ए- शाम पे मुस्कुराहट है

                         आ रहे हैं वो।

                                 ~सतीश रोहतगी

संकेत

लब-ए-शाम=शाम के होठ

आगोश=आलिंगन

सबा=हवा

रक्स=नृत्य

शजरे अँगनाई=आँगन में लगा पेड़

पर्दा-इ-उफ़क़=अँधेरे की चादर

बेकल=व्याकुल

मय=शराब

     


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Sunday, October 4, 2020

महफ़िल और फाँसले

 


दौर-ए-महफ़िल इस बात ,पे ग़ौर किया कीजे

ज्यादा खुलकर भी न,हुजूर लोगों से मिला कीजे।

क्या पता कब कौन कैसे,दुश्मनी हासिल करे

दोस्ती में भी कुछ फाँसले,दरम्यान रखा कीजे।

कुछ पहलू आदमी के,दबकर ही वज़ा रहते हैं

हमराजों से भी न हर एक,राज बयाँ कीजे।

चले जाने पे बहारों के,दिल रह जाये न खाली

रंजो-गम का भी इक कोना,सीने में रखा कीजे।

कौन पूछेगा तुझे,गैर की तिश्नगी में मिटने के बाद

'रोहतगी' बरसो मगर,कुछ बचाकर भी रखा कीजे।

दौर-ए-महफ़िल इस बात,पे ग़ौर किया कीजे

ज्यादा खुलकर भी न ,हुजूर लोगों से मिला कीजे।

                                  ~सतीश रोहतगी



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संकेत

दौर ए महफ़िल=दावत या पार्टी में

वज़ा=उचित,ठीक

तिश्नगी=प्यास

Tuesday, September 29, 2020

बेरोजगार

 आपने बेरोजगारी की समस्या पर बहुत से लेख कविताएँ पढ़ें होंगे।इसके पीछे के कारण और समाधान पर चर्चा की होगी।किन्तु एक बेरोजगार व्यक्ति के भीतर कैसी उलझनें और विचार चलते हैं उनपर शायद कम ही ध्यान दिया हो।

मैंने ऐसा ही एक प्रयास किया है आशा है आपके हृदय तक पंहुच पाउँगा।एक बेरोजगार युवा को सम्बोधित करके यह रचना की गयी है।






कुछ तो मन की बोल प्यारे

भीतर-भीतर क्यों जलता है?

सबकी सुनता कुछ न कहता

चुटकी में उलझन मलता है।

नेक राह मंजिल पाने में

मुश्किल भी है दूरी भी

उनसे तो अच्छा ही है तू

जिनकी नजरों में 'सब चलता है' ।

मुहब्बत तो खुशबू सी होती

संग हवा के बह जाती है

पैसे के सावन की प्यासी को

तेरी मुट्ठी का पतझड़ खलता है।

छोटा -बड़ा जैसा भी होगा

मुकाम बनेगा अपने दम पर

जो कहते थे हम हैं ना

उन रिश्तों में धोखा पलता है।

ये जो ताने है छींटे हैं

और कुछ खुद से नाराजी है

बुरे वक्त के साये हैं ज्यों

बादल में सूरज ढलता है।

कुछ तो मन की बोल प्यारे

भीतर-भीतर क्यों जलता है

सबकी सुनता कुछ न कहता

चुटकी में उलझन मलता है।

            ~सतीश रोहतगी


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Tuesday, September 22, 2020

स्ट्रीट डॉग , street dogs

 आपने देखा होगा कि कोई आवारा कुत्ते/स्ट्रीट डॉग जैसे ही घर के सामने कुछ भोजन की आशा लेकर आता है प्रायः मार भगाया जाता है।कोई कुत्ता जो भोजन के अभाव में दुर्बल होकर एक कोने से में दीवार,झाडी,आदि कि आड़ में पड़ा हुआ न जाने क्यों छिपता सा रहता है।कभी-कभार ही शायद पेटभर खा पाता होगा।उसकी उसी कष्टपूर्ण अवस्था पर कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं।आशा है आपके हृदय तक पंहुचेंगी।पंक्तियाँ इस प्रकार हैं---



अरे श्वान तेरी मौन पीर की

कौन यहाँ सुध लेय

देख कोई लाठी चटकावे

कोई सर पत्थर जड देय,

घर-घर,दर-दर फिरे भटकता

व्याकुल   करती   भूख

किन्तु हाय धनिक मनुज से

बने न कर्ण बराबर टूक,

अतृप्त क्षुदा अतिरेक घृणा

पाकर भी मानुष से मोह

निरपराध निर्दोष है किन्तु

 छिपने ढूंढ्त खोह,

पेट पीठ दोनों एक भये

हुई काया ज्यों कारावास

कौन कर्म का दण्ड पुगाये

नित गाली और उपहास,

कूड़ा-करकट,पत्तों का ढेर

नुक्कड़,नाली और खोह

भूखा-भूखा,पीड़ित-पीड़ित

बस टुकड़े  रहता  टोह,

(कांटेदेखने का एक अलग नजरिया भी आप पढ़ें)

मुख धरती पर धरे -धरे 

जोहता रहता है बाट

सूखे टीकड बासी भाजी

से ही हो जाते ठाठ,

अरे श्वान सन्तोष तेरा

ज्यों सागर में नीर

घृणा गाली चोट झेलता

बांधे  रहता  धीर,

किस भांति तू रैन गुजारे

चाट -चाट पत्तर-दोने

मिला,मिला,कुछ नही मिला

जा बैठा नुक्कड़ कोने,

ढ़ले दिन द्वारे-द्वारे जाकर

मानव की मानवता नापे

या मनुज की कर्म बही में

उसके कर्मों का लेखा छापे,

खोखली मुलाकातेंइस दौर को दिखाती हुई ग़ज़ल)

अरे श्वान तेरी भीगी आँखे

कहती पीड़ा का पाठ

भूख जलाती तुझको जैसे

दिन-रात सुलगती काठ,

पूछ हरि से अस्तित्व है

क्यों तेरा खंड -खंड

दुर्लभ तृप्ति सतत हीनता

जीवन है या दण्ड,

अरे श्वान तेरी मौन पीर की

कौन यहाँ सुध लेय

देख कोई लाठी चटकावे

कोई सर पत्थर जड देय

                  ~सतीश रोहतगी

संकेत

श्वान (shwaan)=कुत्ता

कर्ण बराबर टूक=कान के बराबर टुकड़ा

अतृप्त क्षुदा=बिना मिटी भूख

अतिरेक घृणा=बहुत अधिक नफरत

कर्म बही=कर्मों का खाता

काठ=लकड़ी

तृप्ति=सन्तुष्टि


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Sunday, September 13, 2020

रेत पर लिखा नाम

 रेत पर लिखा जो नाम है,जीने का सहारा है

हकीकत में गैर का है वो,ख़ाबों में हमारा है


उसके सिवा पहलु में कोई चेहरा नही था

याद आता है इस शहर में कोई मेरा नही था

पर आज किसी साये ने,पीछे से पुकारा है

कोई हमसा ही दीवाना है,या वक्त का मारा है


कई बार हमारे पास से गुजरी है जिंदगी

एक बार मुस्करा के हरदम गयी चली

मोती कांच के टुकड़े थे,जिन्हें पलकों से सँवारा है

जो मेरी आँख की सुर्खी है,ये दर्द तुम्हारा है



तन्हाई में देखता हूँ अपनी लकीरों को

और रह-ए-जिंदगी में चलते राहगीरों को

एक जाल है रस्तों का उलझन में गुजारा है

कोई हार के जीता है कोई जीत के हारा है


दुनिया के रुख को दोस्तों समझ सके न हम

किस बात पे हैरां हो कब करने लगे सितम

लोगों की सवाली आँखों को,हँस हँस के गँवारा है

कुछ यूं कर हमने जिंदगी का,कुछ कर्ज उतारा है


 रेत पे लिखा जो नाम है,जीने का सहारा है

हकीकत में गैर का है वो,ख़ाबों में हमारा है

                                              ~सतीश रोहतगी



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ये खूबसूरत शेर भी पढ़िए





Thursday, September 10, 2020

कांटें


लोग काँटों से डरा करते हैं

जाने क्यूँ बेबात गिला करते हैं

पर मुझे इनसे कोई बैर नही

ख़ुशी क़ुबूल गम भी गैर नही

इतने भी बदसूरत नही होते

इन्हें समझने को चाहिए

उपयोगिता की परख,

और एक गहरा नजरिया,

जो बहुत मुश्किल है


है काँटों से अहमियत फूलों की

वो कठोर हैं मानिंद उसूलों की

टूट सकते हैं ,झुकते नही हैं

होकर भी छुपे छुपे से रहते है




हर लम्हा मुझसे कहते हैं

भुला दे तंज जमाने के सभी

कब तलक दिल पे बोझ रखेगा

हद से बाहर अच्छी नही मंजिल की फ़िक्र

पंहुचेगा गर इक कदम भी रोज रखेगा

हमने झेले हैं नजरों से झलकते ताने

और सूरत पे तग़ाफ़ुल से उचकते शाने

होने को भी अनहोना सा बना देते हैं

फूलों की महक में डूबे लोग

हम काँटों को बेवजह सा बना देते हैं



भूल जाते हैं फूलों की बदौलत

लोग चोरी के इरादे से मिला करते हैं

कांटे ही बचाते हैं आशियाने को

और हमसे ही अहबाब गिला करते हैं



संकेत

मानिंद=भांति

तग़ाफ़ुल=उपेक्षा

शाने=कन्धे

अहबाब=दोस्त,मित्र,शुभचिंतक

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विशेष-सभी चित्र साभार गूगल से 




Wednesday, September 2, 2020

कुछ शेर-उलझन


 1.

उनसे इश्क का सौदा नफा था या नुकसान था

हुआ यूं कि हम तन्हाई से आहें बदल के रह गए

उन्हें आना न था न आएंगे पर दिल का क्या करें

हम दियों से रस्ता सजाकर खुद को छल के रह गए

2.

उम्मीद के दिये हैं रोज जलाने हैं बुझाने हैं

आज आएगा ये सोचकर हमें रस्ते सजाने हैं

वो जब लौटने का वादा कर अपनी मंजिल पे बढ़ गया

वो तब भी होशियार था हम अब भी दीवाने हैं

3.

हाथ की लकीरों में लिखा क्या है

पाया ही क्या था जो देखूँ बचा क्या है

मेरे और दिल के बीच इस बात की जंग है

ये ही जिंदगी है तो फिर क़ज़ा क्या है

4.

करिया ए दिल पे इक कयामत आते आते रुक गयी है

उठते उठते उनकी नजर जो आज फिर से झुक गयी है

उलझन बड़ी हमारे लिए उनका कुछ कहे बिना जाना

फिर मुड़कर देखने की घड़ी हम पे बहुत नाजुक गयी है


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स्पष्टीकरण-तस्वीर गूगल से साभार



Monday, August 31, 2020

पलकें


 नरगिसी आँखों पर 

सजती दराज पलकें,

नूर के गोहर पे

किरन सी रंगबाज पलकें,

मिली नजरों की दहक कहीं

सह न पाएं नातवानी ए सब्र




शिद्दत से झुककर करती हैं

इश्क का लिहाज पलकें,

दर्द ए मरिज ए शौक 

इसी तौर ही कम हो

उठे तो गोया कर जावें

दिल का इलाज पलकें,

असर दयारे जहन में यूँ

हरकते मिजगाँ का है

जिया ओ तीरगी से सालती 

बर्क मिजाज पलकें,

चारागर के पोश में वो 

आँखें नशाफ़रोश थीं

एक और ऐब दे गयी हमें

आपकी जालसाज पलकें,

                  ~सतीश रोहतगी


संकेत

दराज पलकें=लम्बी लम्बी पलकें

नूर के गोहर=प्रकाश के मोती

दहक=जलन

नातवानी ए सब्र=सब्र की कमजोरी

लिहाज=शर्म ,हया

दर्द ए मरीज ए शौक=प्रेम के रोगी की पीड़ा

तौर=तरीके से

दयार ए जहन=मन के क्षेत्र

हरकते मिजगाँ=पलकों के इशारे

जिया ओ तीरगी=रौशनी और अँधेरा

सालती=बैचेन करती

बर्क मिजाज=आसमानी बिजली जैसे स्वभाव वाली

चारागर=डॉक्टर

पोश में=वेश में

नशफरोश=नशा बेचने वाली


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चित्र--साभार गूगल से

ग़ज़ल-खोखली मुलाकातें

 

मिलते हजार ठौर

बाम ए सुकूँ नही मिलता ।

खुदगर्जी का शहर है तेरा

चाकदिल का रफू नही मिलता ।

मतलबों के शानों पर

अब रिश्तों के जनाजे हैं,

यहां सड़कों पे मिलता है

बशर में लहू नही मिलता ।

नफे नुकसान के खंजर

रब्त की नींव में उतरे

सिसकते टूटते नातों में अब

पहले सा जुनूँ नही मिलता ।

पडौसी की तरह एक कोने में

माँ राह तके दो बातें हो

है आलम ये बेटा भी अपना



बेटे सा क्यूँ नही मिलता ।

तय होती अहमियत देखिये

जरूरत से मुलाकातों की,

मिलने की ही खातिर

बस कोई क्यूँ नही मिलता ?

पडौसी से भिजवाये सन्देश नही

न ही खत के आने का दौर,

ऑनलाइन इस दुनिया में 

कोई अब रूबरू नही मिलता।

मिलते हजार ठौर हमें

बाम ए सुकूँ नही मिलता।

                     ~सतीश रोहतगी

संकेत

ठौर=ठिकाने

बाम ए सुकूँ=आराम का स्थान

चाकदिल=टूटे दिल

रफू=कटे कपड़े आदि को सिलना


शानों पर=कन्धों पर

बशर=इंसान

रूबरू=आमने सामने


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